"प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता "

By '' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: on 10/20/2008 06:07:00 am , ,
" प्रकृति-चक्र "
हमारी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का जन्म एवं परिपोषण भी मूलतः प्रकृति के सानिध्य में स्वयं प्रकृति द्वारा किया गया था |, आज हम आधुनिकता की दौड में विकास के नाम पर उसी प्रकृति से दूर भाग रहे हैं ,हम यह भूल रहें हैं कि विकास का वास्तविक भावार्थ ' प्रकृति के और निकट जाकर उससे सामंजस्य बैठाते हुए उन्नति करना होता है , इस प्रक्रिया में प्रकृति अपना सर्वश्रेष्ठ उत्पाद जो हमारे जीवन -यापन का मूल आधार है हमें देती है और बदले में हमसे हमारा निकृष्ट - उच्छिष्ट जो सीधे हामारे लिए अनुपयोगी है मांगती है | परन्तु यहाँ एक बन्ध या शर्त भी है , जब हम प्रकृति से उसका सब से उत्कृष्ट लेने के बाद भी उसे प्रसंस्कारित कर के ही उपभोग करते हैं उसे पछोराते, चालते और धोने के अलावा और भी कई प्रक्रियों से गुजरातें है किसी किसी का रूप भी बदलतें हैं , उसके पश्चात उसे आग पर पकाते हैं तब हमारे अनुसार वह हमारे उपभोग के योग्य हो पाता है उसी प्रकार प्रकृति भी चाहती है प्रकृति को हम उसका भोज्य -पदार्थ संस्कारित कर के दें क्यों कि विकास कि उलटी दिशा कि ओर जाने के दौड़ में हमने प्रकृति के प्राकृतिक प्रसंस्कारण एवं शुद्धिकरण उद्योग का विनाश कर डाला है |

और यही "प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता " होगी

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